बेरंग हुए क्यों जाते हो
दुखों और संतानों के यूं संग हुए क्यों जाते हो
पड़के दुनियादारी में बेरंग हुए क्यों जाते हो
क्यों मुरझाए से रहते हो, क्यों तनाव में जीते हो
ग़म को भला क्यों खाते रहते और आंसू क्यों पीते हो
तुम विकार के और व्याधि के अंग हुए क्यों जाते हो
पड़के दुनियादारी में बेरंग हुए क्यों जाते हो
क्यों सहज तुम्हारी दिशा नहीं,और सरल तुम्हारी रैन नहीं
क्यों सूकून को खोज हो क्यों पास तुम्हारे चैन नहीं
सोच-सोच के दिल ही दिल में तंग हुए क्यों जाते हो
पड़के दुनियादारी में बेरंग हुए क्यों जाते हो
कहीं गरीबी में जीवन है, कहीं-कहीं लाचारी है
भले ही जीना कठिन हुआ है मगर ये दुनियादारी है
दुनियादारी के जलवों से दंग हुए क्यों जाते हो
पड़के दुनियादारी में बेरंग हुए क्यों जाते हो
विक्रम कुमार
मनोरा, वैशाली