बेमुरव्वत जि़म्मेदारियों की व्यथा
तमाम उम्र भर..
भारी –भारी नामों को …
सहेजने की प्रथा है …
तुम्हे पता है ?
कितनों की कितनी
बेबस व्यथा है ?
बहू–चाची–मामी
तमगे हैं दायित्वों के..
बेमुरव्वत जिम्मेदारियों
के साथ
टांक दिये गये हैं
रिश्तों की भ्रमित ..
बारीक सी अरघनी पर
और
युवा से अधेड़ फिर वृद्ध होते
झुर्री से भरे रिश्ते ..
हारने लगते हैं नव-चेतन परिणामों से…
जम जाते हैं कटोरी में चिपके
पुराने घी के निशान जैसे
ना प्रयुक्त होने वाले परिधान जैसे
खोते रहते हैं अपना महत्व
भूल जाते हैं कि जलती रोटी के तवे पर
तमाम सुर्ख भाव भी बुझ चुके हैं
उम्र के मौसम के साथ – साथ
पूजे जाने वाले बरगद भी
अब ठूंठ से ठगे–ठगे..खड़े रह गये हैं ।
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ