बेबस बदन देखा
हमने यहीं पर ये चलन देखा
हर गैर में इक अपनापन देखा
देखी नुमाइश जिस्म की फिरभी
जूतों से नर का आकलन देखा
हर फूल ने खुश्बू गजब पायी
महका हुआ सारा चमन देखा
लिक्खा मनाही था मगर हमने
हर फूल छूकर आदतन देखा
उस दम ठगे से रह गए हम यूँ
फूलों को भँवरों में मगन देखा
होती है रुपियों से खनक कैसे
हमने भी रुक-रुक के वो फन देखा
रोशन चिरागों के तले देखे
गलता हुआ बेबस बदन देखा
~ अशोक कुमार रक्ताले