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14 May 2024 · 1 min read

बेबसी!

अज़ीब बेबसी है
सब लाचार, चुप चाप
वक्त भी हाथों से बह गया है
दुआओं में असर ज़रा कम है
सूर्ख आँखें भी आज नम है
बेबसी का अजब आलम है
वक्त जैसे साँसों के संग
चुपके से गई कहीं थम है।

इंसान इतना हैरान है
दर्द से परेशान है
नहीं दिख रही अंत कहीं
खोया अपनों को जिसने
हिम्मत उन में अब कहाँ बची
लड़-लड़ कर हार मान
सब ख़ामोश बेज़ुबान
एक और मरता इंसान।

निशब्द है समाज
दंग है इंसान
ऐसी विपदा आई
मुश्किल है ज़रा इलाज
सुनकर क्रंदन की आवाज़
रोते-बिलखते हालात
जिस्म तो क्या
रूह भी मर रही आज।

हर तरफ़ मायूसी
ग्रसित जैसे हंसी
ग्रहण लगा जीवन पर
दम तोड़ता हार कर इंसान
स्मृतियाँ रही अजर अमर
ये वक्त नहीं रहा जैसे बीत
लम्हा अजेय बन गया
यादों में बस सब गढ़ गया।

बेड़ियों में क़ैद दी गयी हो
या जकरा गया हो ख़्याल को
अक्सों की क्या बात करें
इंसान घूँट लहू का पी रहा हो
बचाता खुद को जैसे
खुद के लिए जीना चाहता हो
और इन सब में भी
दम तोड़ता जा रहा हो।

एक जन्म में कई बोझ ढ़ोता
दुःख के सागर में लगाता गोता
हर कदम पर डूबता जाता
बेहोश बेसुध कैसे रोता जाता
खोकर अपने को पागल सा
इधर उधर बनता फिरता
फिर कानों में आती एक आवाज़
ज़िंदगी है तो होगा तुम्हें जीना।

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Books from कविता झा ‘गीत’
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