बेफिक्री की उम्र बचपन
बेफिक्री की उम्र होती है बचपन,
न पढ़ाई लिखाई का तनाव, और,
न ही खान पान की बंदिश,
न स्वास्थ्य की चिन्ता, और,
न ही पूजा-पाठ का नियम।
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बचपन में जो खाने को मिल गया,
ईश का प्रसाद ही कहलाया,
जो पहनने को मिल गया,
वह प्रभु का पटवस्त्र ही कहलाया,
जो तोतलाहट में बोल दिया,
वही ब्रह्म वाक्य कहलाया।
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भोलेपन से भरपूर और,
ईर्ष्या द्वेष से कोसों दूर होता है,
बाल- बचपन जीवन,
इस जीवन में सभी प्यार करने वाले होते हैं,
जीवन में प्यार ही प्यार होता है ।
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बचपन में गुरु भी दोस्त बनकर आता है,जो,
पढ़ाता कम और प्यार ज्यादा लुटाता है,
नित नए -नए शिष्टाचार सिखलाता है, और,
जीवन को खुशियों से भर देता है।
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बचपन में शिक्षक अच्छे बुरे की पहचान कराता है,
जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करता है,
जीवन को सफ़लता से जीने के गुर सिखलाता है,
बचपन की दहलीज को युवावस्था तक पहुंचाता है।
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डॉ प्रवीण ठाकुर,
भाषा अधिकारी,
निगमित निकाय भारत सरकार,
शिमला हिमाचल प्रदेश।