” बेदर्द ज़माना “
ख़ामोश समन्दर है दिल में
उठती है टींस कोई लहर नहीं
है अश्कों में सैलाब बहुत
पर मुश्किल है कोई नहर नहीं
बेदर्द ज़माना क्या जाने
इल्ज़ाम ही है कोई मुहर नहीं
इल्ज़ाम तो लगते रहते हैं
जीवन है सफ़र कोई ठहर नहीं
क्या जाने,कब,क्यों,कैसे हो
इन लफड़ों का कोई पहर नहीं
यह सब इंसानी फितरत है
कुद़रत का कोई कहर नहीं
कट जाता है,कटता भी नहीं
यह ‘जेल’ ही है कोई शहर नहीं
कहने को तो हम जेल में हैं
सब अपने हैं, कोई ग़ैर नहीं
शाय़द ही कोई ऐसा शहर मिले
“चुन्नु”आबोहवा में जिसके ज़हर नहीं
•••• कलमकार ••••
चुन्नू लाल गुप्ता-मऊ (उ.प्र.)