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13 Feb 2024 · 1 min read

झरोखा

झरोखा नैनो का खोला, ज़िंदगी मुझसे रूबरू हुई।
ख्वाब ओझल हो गए सब, हकीकत की गुफ्तगू हुई।

झरोखा खोल कर रखना, गर बचना चाहो ठोकर से,
फिर न कहना ज़िंदगी ये, मुश्किलों की बस रफू हुई।

कितने संघर्षों से मंजिल का, ख्वाब संजो के रखना है,
चलना नित जारी रहता हैं, राहें तो अभी ही शुरू हुई।

हो न कोई कसूर झांक कर, देखा करते हैं झरोखों से,
पर्दे खुद पर डाले जिन्होंने, निगाहें फिर बेआबरू हुईं।

झरोखों से मन में झांका जब, झुकती हुई नजर से,
देख जमाने की सच्चाई,दफन उम्मीद ए आरजू हुई ।

स्वरचित एवं मौलिक
कंचन वर्मा

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