बेटी की लाचारी
गरीबी थी लाचारी थी,
वह सम्पूर्ण अभागी नारी थी
जिस घर में है वह जन्म ली,
वह भी समय की मारी थी
बेटी के रूप में जन्मी थी
वह सम्पूर्ण अभागी नारी थी ।
गलती बस उसकी इतनी थी
वह उस समाज में जन्मी थी
जहां बेटी की बोझ माना जाता था
वह सम्पूर्ण अभागी नारी थी।
जिसका भाग्य समय का मारा था
न लोग चाहते हैं घर में बेटी हो,
फिर भी न जाने ऐसा क्यों होना था।
मां रोटी सेक के रोती थी,
बाप अभागा कहता था,
जन्नत थी मां की आंखों में
हस्ती थी पापा कहकर वो
वह देख उसे कुढ़ता था।
सुलझी सी सकुचाई सी
अपनो की परछाई सी
वह धीरे धीरे बड़ी हुई,
अपने पैरों पे खड़ी हुई।
अब कारण उसे समझना था
पापा के बातों का
वह रोते रोते पूछी थी
कारण उनके स्वभावों का
मां बोली उनसे तू बेटी है
यह बात उन्हें खा जाती है
अभी शादी तेरी करनी है
यह चिंता उन्हें सताती है
अभी शादी तेरी करनी है
यह चिंता उन्हें सताती है।
आगे इसके मां कुछ कह न सकी
उनकी लाचारी वह सह न सकी
कैसा वह जमाना था
जो बेटी शब्द तक न माना था
जो बेटी शब्द तक न माना था।
पिता का भी कसूर नही
कैसे कैसे वह करता था
न जाने ताने कितने पाएं थे
लोगों से कितना लड़ता था
फिर भी वह लोगों को सहता था
फिर भी वह लोगों को सहता था ।