बेटियां
मैं नहीं वो कली अब,
खिली हो जो मुरझाने को,
अब नहीं मैं अबला नारी,
बनी हो जो सताने को.
नहीं बनना है अब मुझे,
परिहास इस जमाने मैं,
सक्षम हु अब मैं,
अपनी आजीविका कमाने मैं.
मुझे भी अब लड़को जितना,
अपना हक़ लेना है,
मुझको भी अब संसार मैं,
अपनी मर्ज़ी से जीना है.
क्यों बेटी को मारते हो,
क्यों उस को बोझ समझते हो,
मैं ना होती तो तुम भी ना होते,
ये बात क्यों नहीं समझते हो.
बेटियों को मारना अब बंद करो,
करना अत्याचार अब बंद करो,
दुर्गा हु काली ना बन जायु,
इस बात से क्यों नहीं डरते हो.
बेटियां नहीं है बोझ अब,
करती सीना चौड़ा है,
कल्पना, किरण बेदी, पी.वी. सिंधु,
इस बात का नमूना है.