बेटियाँ
देखो ये कैसी दुःख की बदरी छाई है,
फैली कैसे चहुँ ओर वीरानी है |
घर-आँगन का कोना-कोना, अश्रु से भीगा है,
क्यों बेटी के रहते भी, माँ का आँचल सूना है |
जन्म हुआ बेटी का, तो क्या यह घड़ी दुखदायी है ?
क्यों बेटियाँ, नहीं ख़ुशी से अपनाई गई हैं ?
इक नारी जो जने बेटी, बेड़ी-सी उसकी बन जाती है,
पर यही बेड़ियाँ ही रिश्तों की, नई बुनियाद बन जाती है |
फिर हर पल सिसक कर, सकुचाई- सी रहती है ||
क्यों बेटियाँ, नहीं ख़ुशी से अपनाई गई हैं ?
घर का हर कोना, बेटी की हँसी से गूँजता-झूमता है,
उसके न होने से, मन तन्हाई में डूबा रहता है |
दुःख की बदरी छटेगी कब जीवन से, बात मन लगाई है ||
क्यों बेटियाँ,नहीं ख़ुशी से अपनाई गई हैं ?
कब होगा इस दुःख का अंत, आज हमें बताना हैं ,
सदियों से चली इस परंपरा को, आज झुठलाना है,
जन-जन में यही संदेश, देना और समझाना है।
बेटियों की व्यथा का, निदान आज निकालना है।।
क्यों बेटियाँ ,नहीं ख़ुशी से अपनाई गई हैं ||