बेटियाँ
खुशियाँ नहीँ मनाई जाती , क्यों बेटी जब जन्म है लेती ।
हर घर को खुशियों का खजाना ,जबकि अधिकतर बेटी देती ॥
ज्यों ज्यों बेटी बढ़ती जाती ,माँ की जिम्मेदारी लेती ।
हरेक पिता की लाडली बेटी ,पिता के दिल की धड़कन होती ॥
फ़िर भी ऐसा क्यों होता है , जनम पे उसके घर रोता है ।
मात पिता को बोझ बताये , उस बेटे पर घर खुश होता है ॥
क्यों बेटी के त्याग का जज़बा ,इस समाज को समझ ना आता ।
क्यों समाज घर की बेटी को ,इस धरती पर बोझ बताता ॥
घर घर में महिला ही केवल ,बेटी की दुश्मन होती है ।
कब समझेगी घर की दादी ,वो भी कभी बेटी होती है ॥
विजय कुमार अग्रवाल
विजय बिज़नोरी