बेटियाँ विदा हो जाती हैं तो, पर छोड़ जाती हैं अपने मन को बाबुल की देहरी पे ही ( मन उनका सिसकता पड़ा रह जाता है बाबुल की देहरी पे)
बेटियाँ विदा हो जाती हैं तो,
पर छोड़ जाती हैं अपने मन को बाबुल की देहरी पे।
फिर बेचारा मन पड़ा सिसकता रह जाता है वहीं देहरी पर ही,
वो चाह कर भी अपने क़दम उस देहरी से आगे बढ़ा नहीं पाती है।
वहीं से सिसकते हुए देखती रहती है अपना गुजरा हुआ वक़्त।
देखती रहती हैं माँ – पा को शाम की चाय पीते हुए,
उनकी आपस की नोक – झोंक को मुस्कुराते हुए,
रोते – रोते खिलखिला पड़ती है वो, दिल चाहता है
उनके नोक – झोंक में शामिल हो जाए,
पर वो अपने क़दम देहरी से आगे नहीं बढ़ा पाती है,
सिसकती हुई वहीं खड़ी रह जाती है।
फिर देखती है वो, भाई – बहनों को नोक – झोंक करते हुए,
लड़ते- झगड़ते हुए, फिर एक दूसरे को मनाते हुए, वो भी
चाहती है फिर से शामिल हो जाए उनमें, फिर उसे याद आता है
वो तो अब पराई हो गयी है, और रुक जाती हैं सिसकते हुए वहीं
देहरी पे। फिर देखते ही देखते आ जाता है त्योहार का मौसम,
फिर वो देखती हैं सभी को इस ख़ुशी के मौक़े पे फैमिली फोटो
खिंचवाते हुए, और तलाशने लगती है उस फोटो में खुद को भी,
अचानक याद आ जाता है, वो तो अब पराई हो गयी है, रुक
जाती है वहीं देहरी पर ही सिसकते हुए। फिर उसकी तबियत
ख़राब हो जाती है एक दिन, बुरी तरह बुखार में जलती हुई
तड़पती रहती है, सर दर्द से फट रहा होता है, आवाज़ लगाती है
माँ को, कई बार आवाज़ लगाने पर भी माँ नहीं आती है, बिमार
पड़ने पर वो बच्चों की तरह हो जाया करती थी, फिर उसे याद आता है
अरे वो तो पराई हो गयी है, और वो फूट – फूट के रो पड़ती है।
उसे याद आता है जब भी वो बीमार पड़ती थी, माँ के गोद में सर रख
के पड़ी रहा करती थी, प्यार से माँ कभी उसकी पेशानी चूम लिया
करती थी तो रोने लगा करती थी, उसके नाम से सदक़े किया करती थी,
दुआएँ किया करती थी, बाबा अपने हाथों से दवा खिलाया करते थे।
फिर वो उठती है किसी तरह और वहीं दराज़ में पड़ी दवा किसी तरह
ले कर खा लेती है। बार-बार दिल करता है उसका बाबुल के आँगन
में फिर से बच्चों की तरह दौड़ लगाए, भाई से लड़ के अपनी बात
मनवाए, बाबा जब शाम को बाहर से घर आये तो दौड़ कर के
उनके लिए पानी लाये, फिर उसे याद आता है, वो तो अब पराई हो
गयी है, रुक जाती है वहीं देहरी पे सिसकते हुए। वो खड़ी रह जाती हैं, वहीं देहरी पर ही ।
चाह कर भी कभी उस देहरी से आगे क़दम नहीं
बढ़ा पाती हैं। मन उनका वहीं पड़ा सिसकता रह जाता है।
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