बेटियाँ तो बाबुल की रानियाँ हैं
मन का मृदंग हैं, भाव हैं, तरंग हैं, कल्पनाओं की पतंग हैं
निर्झर, निर्मल, नेह भरी, ये वात्स्ल्य पूर्ण रवानियाँ हैं
फिर भी बोलो आखिर क्यों ये, सबकी पहली परेशानियाँ हैं
कहने का न जिनको हक़ है, ये वो अधूरी कहानियाँ हैं
कहने को ही शायद बेटियाँ तो बाबुल की रानियाँ हैं
मीठा-मीठा दर्द इन्हीं से, मौसम घर का सर्द इन्हीं से
जब होता है मर्द इन्हीं से, फिर भी जाने अक्सर ही क्यों
ममतामयी मनोहारी बेटियाँ, कलमुँही, कुलद्रोही, कमतर
कमपोषित, बहुशोषित, कम आँकी गई जो, क्रमवार कुर्बानियाँ हैं
कहने को ही शायद …
पूर्व जन्म ही मार दिया कभी, पराई कह तिरस्कार किया कभी
बोझ समझ बहिष्कार किया कभी, जुए में भी हार दिया कभी
कुलच्छनी कह अस्वीकार किया कभी, बलात्कार उपहार दिया कभी
कभी कहा गया इनको ये नामुराद नादानियाँ हैं
कहने को ही शायद …
रसोई की महक है, घर-घर की चहक है,
पापा की मुस्कान है, भाई का अरमान है,
माँ का दुलार है, पति का प्यार है, रिश्तों का सार है,
न मैं जानूं, न तुम जानो, तो जाने ये कौन भला फिर
खोती है जो खुद को पल-पल, छलनी है क्यों उसका आँचल
क्यों वो झेले निष्ठुर नर की नालायक मनमानियां हैं
कहने को ही शायद …
दो-दो कुलों को रोशन करती, मन के अंगना में रंग भरती
क्यों न दें जो इनका हक़ है, क्यों लियाक़त पे इनकी शक़ है
क्यों न सचमुच मान लें अब तो, नहीं बेटों से कमतर कुछ भी
परमपिता का प्रतिबिम्ब ये, भूलोक की परियां प्यारी
घर को स्वर्ग कर देने वाली मनमोहक मृदुबानियां हैं
सिर्फ कहने को नहीं, बेटियाँ हाँ बेटियाँ सचमुच बाबुल की रानियाँ हैं।