बेखुदी मे अश्क आँखों से बहाता ही रहा मै – गज़ल
गज़ल
बेखुदी मे अश्क आँखों से बहाता ही रहा मै
सह लिया खुद दर्द लोगों को हसाता ही रहा मै
देख अन्जामे मुहब्बत आज भी हैरान सा हूँ
गम खरीदे खुद तो खुशिओं को लुटाता ही रहा मै
आइना सच बोलता है राज आँखों के न खोले
िस मु ब्बत को जमाने से छुपाता ही रहा मै
साहिलों की साजिशों मे एक कतरा क्या करे
संग लहरों के उछल कर छट पटाता ही रहा मै
गाँव छोडा जब शह्र की रंगीनियों ने था लुभाया
रौनकों के बीच भी पर रोज तन्हा ही रहा मै
क्यों लबों पर रोज पहरा सा बिठा देता रहे वो
बाहरा चुप सा रहे लेकिन बुलाता ही रहा मै
बाद मुद्द्त के मिला जैसे हो कोई अजनबी सा
याद कर जिसको कई सपने सजाता ही रहा मै