बेख़बर
जिंदगी की राहों में हम अकेले ही रहे ,
हमसफ़र बनते रहे बिछड़ते रहे ,
रिश्तो का कारवां रवाँ- दवाँ रहा ,
कभी खुशी कभी गम के अब्र छाते बिखरते रहे ,
अख़लाख़ -ए- बावफ़ा होकर भी ,
फितरत-ए-बेवफ़ा के गुन्हेग़ार बनते रहे ,
अपनी खुदी को औरो की खातिर क़ुर्बान कर ,
अपने वजूद से बेखबर होते रहे ,
जमाने की रौ में ना बहने सके ,
अपने आप के भँवर में डूबते उबरते रहे ,
किसी से ना गिला ना शिकवा ,
जो मयस्सर था उसी में खुश होते रहे ।