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13 Jun 2021 · 1 min read

बूढ़ी माँ

गौरैया
चोंच से चुंग कर
स्वयं भूखी रहकर
अपने नन्हें चूजों
की चोंच में
उड़ेल देती
उसे क्या पता?
ग्रीष्म ऋतु में
पंख फैलाकर
उड़कर
दूर देश पहुँचकर
भूल जायेगे
माँ के अपरिमित अहसानो को
खो जायेगें
जीवन की रंगबिरंगी
हसीन बादियों में।
चिंता की
खुरदरी चादर ओढ़े
टूटी खाट पर
बैठी बूढ़ी माँ
गौरैया को देख
याद करती
अतीत, नवीन
और कबीर को
तब तक
मुडेर से काक की
कांव-कांव की
आवाज सुनकर माँ
दिवास्वप्न से
एकाएक
जाग जाती
अपनो की प्रतीक्षा में
भूख-प्यास मर जाती
कोई नहीं आया
मन ही मन
बड़बड़ाती
झल्लाती
निशा के आगमन
के साथ
उर के टुकड़ों के
मिलन की पीड़ा
अश्रु बनकर
अवश्य बरस जाती
निद्रा के अंगो को
गीला कर जाती ।
बेचारी माँ
शहर जाकर
आधुनिक शैली
का लिबास नहीं पहन पाई
आधुनिकता की
पगडंडियों पर
चलने वाली
बहुओ के साथ
एडजस्ट नहीं
कर पाई
आधुनिक बेटो ने
माँ को गाँव लाकर
धनिया नौकरानी
की देख- रेख में
अकेला छोड़ दिया
इस प्रकार
माँ के अपरिमित
ऋणों को
पूरा किया।।
रचयिता
रमेश त्रिवेदी
कवि एवं कहानीकार
यह रचना समाचार पत्र दैनिक प्रतिपल मे प्रकाशित हो चुकी है

Language: Hindi
1 Like · 2 Comments · 382 Views

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