बूढ़ा आदमी
उम्र की ढलान पर जब,
आदमी के दांत निकल जाते हैं,
बाल सफेद होने लगते हैं;
बूढ़ा लगने लगता है,
घर वालों को भी कूड़ा लगने लगता है।
खोया रहता है
अपने ही विचारों के मकड़जाल में,
घेर लेती हैं उसे अनेक बीमारियां
पड़ा रहता है मृत्यु के गाल में ।
रात-रात भर जागकर सूनेपन में,
निस्पृह एकाकी मन में।
नई पीढ़ी और उसमें
जमीन आसमान का अंतर होता है;
पौरुष अपार उसके अंदर होता है,
वह अनुभव का समुंदर होता है।
उसे पुरातन भाता है,
नया कुछ भी नहीं।
उसके भीतर खौलती रहती हैं लहरें
गड़गड़ाहट का शब्द लिए हुए,
लोगों को स्तब्ध किये हुए।
अनुभव की परिचायक हैं-
उसकी रगों पर पड़ी हुई झुर्रियां!
ऐसी लगती हैं जैसे कि,
अपने ही रक्त से सींची हों उसने-
अपनों की बसाहट के लिए,
मीलों तक फैली हुई क्यारियाँ।
उम्र के उस पड़ाव पर
असहाय हो जाता है वह
नया जीवन देती है उसे
हर एक नई सुबह ।
छुटकारा चाहते हैं उसके अपने
जिनके लिए देखे थे उसने
हजारों रंगीन सपने।
मन, चेतना, और प्राणों में बसी
उसकी शाश्वत शक्ति है।
शारीरिक अक्षमता नियति है,
मुक्ति ही कामना है,
कुरूपता नैसर्गिक अभिव्यक्ति,
अशेष आशक्ति है।
(जगदीश शर्मा)