बूंद और समुंद
बूंद हूं मैं अविरल प्रवाहमान वैज्ञानिक सोच का पहरुआ।
समाज को वैज्ञानिक सोच का समंदर बना देखने का अभिलाषी।
मगर, सैलाब को जब मनुष्य के, इस इक्कीसवीं सदी में
धर्मस्थलों की तरफ भागता देखता हूं
तब हौसले को मेरे धक्का लगता है बेशुमार।
आओ, समानधर्मा बूंदो! इस धक्के के हौसले को धकियाएं
दकियानूसी सोच के समंदर को घटाकर बूंद मात्र बना सिमटाएं