बुढ़ापे में हड्डियाँ सूखा पतला
बुढ़ापे में हड्डियाँ सूखा पतला
बाँस हो गयी हैं
उसे तमन्ना फिर भी जीने की
आँखों पर मोह का परदा नहीं
ये तो कनात हो गई है
अब भी छिछले पानी में तैर रहे वो
जिनकी निगाहें आसमान हो गई हैं
दरख्तों की रूह से लिपटा गुलबदन
रुखसत होकर चला फलक ओढ़ने
कमबख्त जड़ें पाताल हो गईं हैं
मन भँवरे सा उलझा है अब भी कली में
उड़ने की चाह में सम्भाला खुद को तो
दूर तक सुगबुगाहट हो गई है
आज भी बदला नहीं वह
पाँव कब्र में लटक रहे
हलक में जान हो गई है
भवानी सिंह “भूधर”
बड़नगर, जयपुर
दिनाँक:-०२/०४/२०२४