बुझती मशाल -जलतीं मशालें
परतंत्र-काल में जली
देश-भक्ति की मशाल
काजल की कोठरी में
पारने काजल लगी|
तयशुदा था कम जिसका
उजाले को बाँटना
स्नेह उसका सोख कर की
कर्णधारों ने ठगी|
नीव में जिसके शहीदी
भाव का गारा भरा
रक्त से सिंचित धरा की
हो रही है दिल्लगी|
तूं-तूं और जंग मैं मैं
राजनैतिक रंग ने
देश तोड़ा, जुडी केवल
व्यवस्था मुती-हंगी|
अब मशालें जल रहीं हैं
देशद्रोह आतंक की
राष्ट्र की रोकें प्रगति
यही दो बहनें सगीं|