बीती यादों के बसेरे
तन्हा रातों में बिसरी यादों को
आवाज दे बुला रहा हूँ मैं।
जुबां तो हो चुकी खामोश
सदा दिल की सुना रहा हूँ मैं।
दवा तो हो चुकी बेअसर कभी की
दुआओं के मरहम लगा रहा हूँ मैं।
तूफानी रात में देखो दीए की
लौ जला बुझा रहा हूँ मैं।
गलतियां की कदम दर कदम मैंने
खामियाजा आज उठा रहा हूँ मैं।
अब तो आलम ये हैरानगी का
कि बंद आँखों में ही कदम बढ़ा रहा हूँ मैं।
सुन कर इक आह मेरी
देखा जो किसी ने मुड़कर
अपनी इसी बानगी पे तो
बहुत मुस्कुरा रहा हूँ मैं।
—रंजना माथुर दिनांक 10/08/2017 (मेरी स्व रचित व मौलिक रचना)
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