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30 May 2024 · 1 min read

बीतते साल

परत दर परत बिछती रही साल दर साल
जिंदगी की जमीं पर
उस जमीं को देखे अरसे बीत गए
कभी हटाई भी परतें तो धूल से हुआ सामना
साल बीतता है और मैं फिर व्यस्त होती हूं
किसी नई परत में खुद को उलझाने
वो जमीं याद आती है बार – बार
जिससे टकरा जाऊं तो पा लूं खुद को
पर खोलूं कैसे इन रंग बिरंगी परतों को
जो लिपटी हैं वजूद से मेरे
और उलझाए रखती हैं अपने रंगों में मुझे
एक के बाद एक बिछ जाती हैं
इन पावों तले और बढ़ाती जाती हैं दूरियां
मेरी जमीं और मेरे बीच

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