बीतते साल
परत दर परत बिछती रही साल दर साल
जिंदगी की जमीं पर
उस जमीं को देखे अरसे बीत गए
कभी हटाई भी परतें तो धूल से हुआ सामना
साल बीतता है और मैं फिर व्यस्त होती हूं
किसी नई परत में खुद को उलझाने
वो जमीं याद आती है बार – बार
जिससे टकरा जाऊं तो पा लूं खुद को
पर खोलूं कैसे इन रंग बिरंगी परतों को
जो लिपटी हैं वजूद से मेरे
और उलझाए रखती हैं अपने रंगों में मुझे
एक के बाद एक बिछ जाती हैं
इन पावों तले और बढ़ाती जाती हैं दूरियां
मेरी जमीं और मेरे बीच