बिषैली सी हवाएं हैं वतन में
ग़ज़ल-(बह्र – हज़ज मुसद्दस महज़ूफ)
बिषैली सी हवाएं हैं वतन में।
है घोला ज़ह्र यूं गंगो-जमन में।।
क़फ़स में ही लगे महफूज़ रहना।
परिंदे अब नहीं उड़ते गगन में।।
लुटेगा कारवां कैसे नहीं अब।
हुए रहबर ही शामिल राहजन में ।।
गुलों से जलने की बू आ रही है।
लगाई आग है किसने चमन में।।
सियासत खेल अपना खेलती है।
लड़ाती अब इबादत और भजन में।।
लुटाते ज़ान अपनी सरहदों पर।
जवान आते तिरंगे के कफ़न में।।
“अनीश” उनको कहें कैसे सुख़नवर।
लिखें तहरीर ज़हरीली सुख़न में।।
@nish shah 8319681285