बिन पानी के मर जायेगा
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घुटी घुटी हवाएं हैं
दम होते बेदम
सिसकियों में नित ही
खोती है सरगम ।
जल रही दिशाएं
चीत्कार है चहुंओर
दिशा विहीन से सब
दिखे न कोई ओर छोर।
खोया हुआ सा खाका
पैमाने हुए खतम
चमकीली सी आंखें
होती हैं अब नम।
राह खो गई जीवन की
चौराहा बना पता है
कहने को सब ठीक-ठाक
पर मंजिल लापता है।
गिनती उंगली दिन रैना
जीवन की सांझ को आतुर
आज खड़ी अपनी ही छाया
रूप धरे बड़ी भयातुर।
चाल प्रलय की चलती है
जीवन की लय है मद्धम
बुझे बुझे से दीप भोर के
पनाह मांगते हैं हरदम।
बचपन की तरुणाई पर
भय के काले बादल हैं
स्याह दिवस के खग बावले,
नीड़ बिना वे पागल हैं ।
नई रीत है प्रीत की,
रिश्तों के प्रतिमान नए
काल नटी का खेल चल रहा
खेलों के आयाम नए।
पता नहीं है अगले पल का
क्या से क्या हो जाएगा
क्या नींव कंगूरे पर बैठेगी
क्या आंसू से सब ढह जाएगा।
खुद के दर्शक बन बैठे हैं
खुद का ही है लगा तमाशा
बची खुची जो बंधी पोटली
फ़टी लुटी सारी आशा।
घाव बड़े ही गहरे हैं
मिलता है ना अब मरहम
कौन सुने अब किसकी सिसकी
रोते हैं सब बस हरदम।
दामन नहीं कोई खाली,
दुख में वह बसे रचे हैं
और बचे जो काल हाथ में
बांधेंगे ,जो वस्त्र बच्चे हैं।
नंगा होकर आया था
पूरा नंगा हो जाएगा
दूध बूंद लेकर आया था
बिन पानी के मर जाएगा।
~माधुरी महाकाश