बिना छत के जीते हैं बेघर तो देखो
घरों से कभी तुम निकलकर तो देखो
बिना छत के जीते हैं बेघर तो देखो
न पक्के मकां हैं न सड़कें न नाली
ग़रीबों की बस्ती का मंज़र तो देखो
अभी ताज़ा-ताज़ा अमीरी मिली है
अभी उसके बिगड़े हैं तेवर तो देखो
मुझे दुश्मनों की ज़रूरत नहीं है
लिये दोस्त हाथों में ख़ंजर तो देखो
उठाते रहे उंगलियाँ दूसरों पर
कभी झांककर अपने अन्दर तो देखो
यक़ीं है मुझे अब तो मंज़िल मिलेगी
मेरा नाख़ुदा है ये रहबर तो देखो
ये है हुक़्म रब का चुने कुछ ही जाते
बनाकर किसी को क़लन्दर तो देखो
असर कुछ तो होगा सभी पर ही ‘आनन्द’
अमन के परिन्दे उड़ाकर तो देखो
– डॉ आनन्द किशोर