बिडम्बना
बिखरी हुई पंखुड़ियों से
फिर बनता नहीं गुलाब,
हाय रे बिडम्बना-
मुश्किल से मिलता है
फिर से, बिगड़ा हुआ हिसाब-किताब।
टुकड़े-टुकड़े काँच जोड़कर
बनता नहीं दोबारा दर्पण,
हाय रे बिडम्बना-
जाती रही चेहरे की चमक
अब क्या इसका आकर्षण?
नहीं जुड़ेंगे फिर
दरक गए जो सम्बन्ध,
हाय रे बिडम्बना-
कुछ तो बह जायेगा जरुर
जब टूटेंगे तटबन्ध।
कैसे बने लकड़ी फिर से
जो भई कोयला फिर राख़,
हाय रे बिडम्बना-
मिट जाती है कभी भी
अच्छी से अच्छी साख।
निकल पड़े बहक कर घर से
लौटे कैसे फिर वो पाँव,
हाय रे बिडम्बना-
पत्ते छूट जाएँ तो
दरख़्त देते नहीं छाँव।
(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम्”