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1 Nov 2018 · 1 min read

बिगड़ता अंदाज़

बिगड़ता अंदाज हूँ

माना कि बदलते दौर का बिगड़ता अंदाज हूँ
लेकिन तेरे कदमों से ही तो बढ़ता मैं आज हूँ।

नए दौर की नई बातें, तुमको ही लगती प्यारी
तेरी ही चाह में खुद का बदलता मैं मिज़ाज हूँ।

करता था मैं भी बात संस्कारों की व्यवहारों की
बदल दिया जो संस्कार,उसी का मैं आगाज हूँ।

धर्म-अधर्म की सारी बातें,सबको लगती भारी
नए दौर के लफ्ज़ों से निकला मैं अल्फ़ाज़ हूँ।

लबों की खामोशी को न समझ लेना कमजोरी
ध्यान से तो सुन तेरे ही दिल की मैं आवाज हूँ।

चुप बैठा हूँ जमीं पे तो बुज़दिल न समझ लेना
आसमां से भी ऊंची जो उड़े वही मैं परवाज हूँ।

ये दुनियां ये दौलत, ये हसरत और ये नफऱत
तेरे मन को जो भाये, वही झंकृत मैं साज हूँ।

अपनी बोली अपना जीवन,कब तुझको भाया
तुमने जो शब्द भरे,उन्हें ही देता मैं आवाज हूँ।

हाँ बदल गया मैं भी अब इन मौसमों की तरह
तुम्हारे ही दिल में तो दफ़न हुआ वो मैं राज हूँ।

कहा था तुमने वक्त के साथ बदलना होता है
बदल गया “प्रियम” तो कहते कि मैं नाराज़ हूँ।

©पंकज प्रियम

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