बिखरते सपने
एक खंडहर में
कंक्रीट की बहुमंजिली इमारत
जिसमे रोज दफ़न हो रहे है
लाखों सपने
किसी के घर के
रोज ध्वस्त हो रहे है
लाखों अरमान
कौन सुने उस इमारत की पुकार
उस खरीदार के दर्द को
सभी है मौन
यह कैसा शासन
यह कैसी प्रणाली
बस आश्वासन
बिखरते सपनोँ को कौन जोड़े
इंतजार में जा रही है जाने
एक तरफ मार है बैंको की
तो दूसरी तरफ बच्चों की मोटी फीस
फिर बची महँगाई
जनता लाचार
कौन सुने उसकी पुकार
सब मस्त है
किसी के गुणगान में
सच्चाई से मुँह मोड़
कही सपना सपना न रह जाये
एक अदद घर का
समय मौन है ?
डॉ.मनोज कुमार