*** बिंदु और परिधि….!!! ***
“”” बिंदु…..! ( प्रेम प्रतिक ) ,
न कोई लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई…
और न कोई माप…!
न कोई आकार, आकृति, आयतन, क्षेत्रफल…
और न कोई परिणाम…!
एक “बिंदु” केंद्र बन…
कर गया निर्माण वृत्त-परिधी…! (जीवन चक्र ),
त्रिज्या-व्यास…! (मेल-मिलाप प्रतीक )
तय करता वृत्त-परिधी की परिमाप…!
फिर…
बढ़ते-घटते त्रिज्या से,
बनता लधु-दीर्घ वृत्त की…
एक सीमा, क्षेत्र एक दायरा…!
वृत की परिधि पर…
लगाते अनेक चक्कर, अबोध मन बावरा…!
जब-जब त्रिज्या में…
होता है अनुपातिक परिवर्तन,
गणितज्ञ बन हम-तुम अनेक विधियों से…
करते गणना, परिकलन और आंकलन…!
लेकिन…!
सारे क्रियाकलापों के हैं…
केवल और केवल एक ही आधार…!
अपरिवर्तित ” बिंदु ” एक आकार…!
बिन इसके किसी वृत्त-परिधी की,
होता नहीं रचना…!
केवल मात्र बिंदु ही है…
समूल आधार संरचना…!
लगा लो तुम विविध-विचार…
लेकिन…!
होता नहीं ” बिंदु ” का कोई रुप-आकार…!
यदि ” बिंदु ” का वास्तविक आकार…
या आकृति का करना है अवलोकन…!
या आंकलन-अनुमान…
चुन लें वर्ण-विक्षेपण सा ( सप्तरंगी समूह) ,
परिधान…!
चयन कर कोई एक रंग ( एक राह ) ,
वृत्तीय रचना ही प्रतीत् होगा…
एक आवर्धित बिंदु सा बृहद-बिंदु अंग…!
तू लगा इसकी सीमा में…
अपनी शक्ति से सक्षम फेरा…
न कर समझने का यत्न यहां,
है न कोई अपना मेरा-तेरा….!! “”
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