बाॅंट लेंगे ख़ुशियाॅं !
बाॅंट लेंगे ख़ुशियाॅं !
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कोई मेरी राह रोके है खड़ा !
मुझे है जाना पर्वत के उस पार !!
पर्वत के पार मंज़िल है दिख रही !
जिसका मुझे करना है दीदार !!
ये ज़माना ज़ालिम है कितना !
पर्वत को न करने देता मुझे पार !!
वैसे तो रास्ते इसके बड़े दुर्गम !
जिसे निश्चय ही करना है मुझे पार !
और ढूॅंढ़ना अपना सुंदर सा संसार !!
पर्वत के बीच से निकली हैं राहें !
जिन राहों से डटकर मैं गुजरूंगा !!
माना ये राहें बड़ी टेढ़ी – मेढ़ी !
पर चलकर पार भी कर जाऊॅंगा !!
पर यहाॅं पर्वत से भी बड़ा अवरोध !
जो पर्वत तक भी पहुॅंचने न देता !!
दो कदम आगे जब बढ़ जाऊॅं !
तो बीच में रोड़े खड़े कर देता !!
मैं तो हूॅं एक सीधा-सादा इंसान !
जऱा भी छल – कपट, प्रपंच नहीं !!
इसी का नाजायज़ फायदा उठाकर !
लोग मुझे रोक-टोक कर देते यहीं !!
मुझे कुछ पता ही नहीं चल रहा !
ये ज़माना चाहता क्या है मुझसे !!
मैं यहाॅं हूॅं घुट – घुट के मर रहा !
पर व्यथा अपनी सुनाऊॅं मैं किससे !!
अब ईश्वर से ही बस, आस है बॅंधी !
वे ही कोई राह सम्यक् निकालेंगे !!
कॅंटीली राहों से कंटक को हटाकर !
मुझे अपनी मंज़िल तक पहुॅंचाएंगे !!
साथ प्रभु का तो मिलेगा ही मुझे !
ऐसी ही उम्मीद उनसे है मेरी !!
पर साथ मित्रों का भी गर मिल जाए !
तो इससे ज़्यादा बेहतर कुछ नहीं !!
भावी मंज़िल से भी बड़ी मंज़िल यही !
बाॅंट लेंगे खुशियाॅं सब मिल यहीं !!
स्वरचित एवं मौलिक ।
© अजित कुमार कर्ण ।
किशनगंज ( बिहार )