बारिश
बारिश में
बरसो बरस अपने ,
ख्वाबों की धनक,
खुद में समेटे,
मै चली जा रही थी,
कि अचानक से नज़र ठहर गयी,
हाथों से सब्र की पोटली फिसल गयी,
बीते वक्त ने चेहरा बदल
जब खुद को दोहराया,
मेरी मज़बूरी से आईना
फिर झुंझलाया,
मै नारी हूं,
न ये सच बदल पाया,
फिर आँचल से
मुहँ लपेट
मैंने आगे कदम बढाया,
आज भी यही कहानी है
बाहर जज्बातों की आंधी है,
कही तल्खियों की
बारिश है,
आज भी मेरे अरमा के मंका
की छत
य़ू ही टपक रही है,
मै नारी हूं,
जिसके वजूद की
दास्तान शून्य में सिमट रही है!
-रजनी
।