बादलों ने नभ निलय में ( नवगीत)
नवगीत –3
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बादलों ने
नभ, निलय में इन्द्रधनुषी
रँग भरे क्यों ?
सह थपेड़े
मौसमों के ,फ़ूल सरसों
के झरे क्यों ?
आह में
तप सतपथों पर तीव्रगति से
तू चला चल
दुखभरी
इक रात भी तो मनुज का
तोड़ती सम्बल
कौन जाने
हो कि न हो कल सबेरा
इस निशा का
जिंदगी
है स्वप्न प्यारी पर अधूरी
फिर डरे क्यों ?
हार कैसी
जीतना जब है पड़ा सच
झूठ अंधा
कर्म की
बैसाखियों को दृढ़ता दे ,
लाँघ बंधा
दुर्गुणों की
सुखमयी ये धूप अच्छी
तो नही है
सर्द पशुवत
आदतों की ओढ़ निजता
हम ठरे क्यों ?
– रकमिश सुल्तानपुरी