बादलों की खिड़की से
बादलों की खिड़की से,
बार-बार झाकता है।
बद-नज़र चाँद मेरी ओर,
सारी रात ताकता है।
साँझ ढले मेरी खोज में,
चाँद फलक पर आया।
मैं दरिया किनारे बैठी थी,
वो पानी में उतर आया।
उसकी वेदना समझती हूँ,
मैं कठोर नहीं हूँ।
मगर चाँद से कोई कह दो,
मैं चकोर नहीं हूँ।
मेरी तीरगी मिटाने को,
चाँद मेरे पास है।
फिर भी मुझे कब से,
एक जुगनू की तलाश है।
त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उत्तर प्रदेश)