बातें हैं बातों का क्या!
लो यह साल भी बीत गया,
ठीक उसी तरह,
जैसे उन्नीस और बीस,
बीत गया था,
इस बीते वर्ष में भी,
खूब बातें हुई,
ठीक उसी तरह,
जैसे उन्नीस और बीस में हुई,
बातें हुई और भुला दी गई!
जैसे कहा गया था,
इक्कीस दिनों में,
कोरोना पर विजय पा लेंगे,
और अब इक्कीस माह बीत गए,
पर हासिल कुछ नहीं!
ठीक उसी तरह जैसे,
विदेशों से काले धन पर कही गई,
काले धन की आवक तो न हुई,
हां यह जरूर सुना गया,
इसकी राशि और अधिक बढ़ गई,
उन्हीं देशों में,
जहां से वापस लाकर,
वितरित किया जाना था,
हम्हें पंद्रह लाख के रूप में!
ठीक वैसे ही जैसे,
काले धन से,
आतंकवाद की कमर तोड़ देंगे,
नोटबंदी को करने से,
लेकिन आतंकवाद की घटनाएं,
घटी नहीं, अपितु बढ़ ही गई!
अच्छे दिनों का सपना भी तो कहा गया था,
और वह हमने महसूस भी किया,
गैस और पैट्रोल पर ,
टैक्स की दर बढ़ा कर,
अदा करने पर!
महंगाई की मार से त्रस्त जनता को,
एक अनुभूति ने राहत पहुंचाई,
राम चन्द्र जी के मन्दिर बनने से,
उन्हें लगने लगा,
चलो कुछ तो अच्छा हुआ,
वर्ना कोरोना से लेकर,
महंगाई तक ने ,
राहत की सांस लेने का अवसर ही नहीं दिया!
ऐसे में अचानक एक दिन,
किसानों के लिए , किसान हित में,
एक कानून का अध्यादेश आ गया,
किसानों को इस पर ऐतराज हो गया,
नाम हमारा -हित अंबानी अड़ानी का,
नहीं चलेगा- नहीं चलेगा,
और ऐसा करते करते,
पूरा साल बीत गया,
आखिर एक दिन,
माननीय प्रधानमंत्री जी ने,
आकर क्षमा याचना के साथ,
यह जतला दिया,
जिनकी खुशहाली के लिए लाए थे,
उनका एक छोटा हिस्सा ,
हमारे समझाने से नहीं समझ रहा,
इस लिए मैं वापस ले लेता हूं,
उस कानून का वह हिस्सा,
जिसे हमने बनाया था,
बहुमत के अधिकार से,
बिना बहस या चर्चा के,
किसान जो अड गये थे,
वह लौट आए अपने घर,
इस उम्मीद पर,
अब उनके हित में,
बनाए जाएंगे वह नियम,
जिन्हें बतलाकर आए हैं हम,
बस यही एक बात थी,
जिसने सुकून दिया,
आज भी लोकतंत्र है कायम,
विभिन्न प्रकार के विकारों के ,
उपरांत भी !
बातें हैं बातों का क्या?
उन्हें आने जाने में,
कोई दिन -हफ्ते,
या महिने और साल,
बीत जाने की जरूरत नहीं,
वह तो पल भर में आकर,
भुला दिये जा सकते हैं,
अगले ही पल,
और इसका कोई विषाद नहीं,
इससे कोई विरक्ति नहीं,
पर जब बात हो जाए भरोसे की,
तब वह न निभाई जाए,
तो फिर विषाद, अवसाद,
विरक्ति और आपत्ति,उपजति है!
जब कह कर कोई साथ न दे,
जब कह कर कोई भरोसे पर न उतरे,
जब कह कर भी कोई प्रयास न करे,
तब लगता है,
जो कहा गया,सब बकवास था,
कोरी कल्पना थी, मिथ्या भाष्य था,
तब लगता है,
बातें हैं बातों का क्या?
ऐसा भी नहीं है कि कुछ हुआ ही नहीं,
खाने पीने को दो वक्त का भोजन मिला,
रहने को छत का आसरा भी मिला,
इष्ट मित्रों का सानिध्य भी बना रहा,
भले ही बड़े बड़े अरमान पूरे न हुए,
पर कुछ अभिलाषाएं तो हासिल हुई,
हां यह भी सच है कि कुछ धरी रह गई,
बहुत सी बातें हुई और टल गई,
सुनहरे भविष्य की लालसा,
महंगाई के बोझ तले दब गई,
घर परिवार की आवश्यकताएं,
पूरी न हो सकी,
ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले पूरी हुई थी,
पहले भी तब जब कही गई,
ग़रीबी हटाने की बात हुई,
पर तब भी क्या गरीबी दूर हुई ,
जो अब होगी,
ये सब बातें हैं,
और बातें हैं तो बातों का क्या,
उम्मीद लगाए जा,
आस जगाए जा,
जो हसरतें पूरी न हो सकी,
उन्नीस और बीस के साल में,
शायद पूरी हो जाए अबकी बाइस में!
ठीक उसी तरह जैसे कहा गया है,
कसमें वादे प्यार वफ़ा,
बातें हैं बातों का क्या!!