बातूनी
बातूनी
मैं बैठा था
एकान्त में
होना चाहा निशब्द
परन्तु हो न सका
नहीं हिले होठ
नहीं हिली जुबान
लेकिन बोलता रहा
अपने-आप से
चलता रहा
विचारों का चक्रव्यूह
एकान्त में भी
दौड़ते रहे घोड़े
स्मृतियों के
मैदान में
एकान्त में शायद
हो जाता हूँ
और अधिक बातूनी
-विनोद सिल्ला©