बागबाँ
जरूरत को, शिकायत को सही पहचान पाता है,
बने जब बाप कोई जन निभाना जान पाता है।
नहीं आलस जगह रखता, नहीं परवाह को छोड़े,
सही हर बागबाँ कर के इरादा ठान पाता है।
कमाई पर करे है ऐश हर बालक उसी की पर,
कमाने खुद लगे तब ही पिता को मान पाता है।
कोई टूटी हुई चप्पल, पुराना-सा कोई कुर्ता,
मशक्क़त तीफ्ल की ख़ातिर ज़माना जान पाता है।
सफर सच्चे सुकूँ वाला न समझे गाड़ी या घोड़ा
जिसे इक बाप के कंधे का ठिकाना जान पाता है।
रहे हर ‘बाल’ तब तक ही कि जब तक बाप का साया,
बिना उसके बड़ा खुद को मनुज कुछ मान पाता है।
तीफ्ल: बच्चा