“बहुत देखे हैं”
भीतर से कसाई बाहर से हलवाई बहुत देखे हैं।
सामने वाहवाही पीछे करते बुराई बहुत देखे हैं।
शीशा तो दिखाता है सच मगर सदा उल्टा,
साफ शीशों की ये करिश्माई बहुत देखे हैं।
तनहा खड़ा है कटघरे में सत्य बेचारा,
मिथ्या के पक्ष में गवाही बहुत देखे हैं।
न कीजिए गुमान अपने तख्त ओहदों का साहेब!
गुमानियों की तख्त से रिहाई बहुत देखे हैं।
बखूबी इल्म है हमें भी कलम की ताकत का,
मगर कालिख बनते स्याही बहुत देखे हैं ।
अधिक न कीजिए ऐतबार यहां किसी भी साथी का,
साथी को बनते हरजाई बहुत देखे हैं।
एक संग वफा, दूजे संग रज़ा,
तीसरे के संग विदाई बहुत देखें हैं।
ईधर है ठिठुरता बदन तन्हा,
उधर मचलती तन्हा रजाई बहुत देखें हैं।
अब तो जी नहीं करता किसी को अपना समझने का भी,
अपनों के भीड़ में जो तन्हाई बहुत देखे हैं।
देखा छोटी उम्र में बहुत कुछ ‘ओश’,
फ़िर भी कुछ न देखा तुमने।
क्योंकि, सच की ज़ुबां पर सिलाई बहुत देखें हैं।
ओसमणी साहू ‘ओश’ रायपुर (छत्तीसगढ़)