बहरे हैं
चलने वाले
साथ सभी जब
अंधे, गूँगे, बहरे हैं,
कैसे पूरे
होंगे जो भी
देखे स्वप्न सुनहरे हैं।
बँधी हुई
खूँटे से नावें
खाती हैं तट
पर हिचकोले,
उत्ताल तरंगें
ले जाएँगी
उस पार नहीं ऐसे भोले।
कैसे साथ चले परछाईं
जब हम बैठे ठहरे हैं।
दुर्दमनीय
हुई है पीड़ा
दम साधे
बैठी हैं चीखें,
ले अशांत
अंतर को कैसे
जीवन की परिभाषा सीखें।
देख फड़कते
अधर लग रहा
राज़ छिपाए गहरे हैं।
धँसी हुईं
गड्ढे में आँखें
सूखा बदन बना है ठठरी,
लाद शीश पर
चलता लेकिन,
अरमानों की भारी गठरी।
पंख कुतर कर
भरी न इच्छा
अब उड़ान पर पहरे हैं।।
डाॅ बिपिन पाण्डेय