बस मिट्टी ही मिट्टी
इंसान और घड़ा दोनों एक से लगते
माटी से बनते माटी में ही जा मिलते !
संवरते दोनों जब अंदर से सहारा पाये
और थपकियाँ दे बाहर थोड़ा मारा जाये !
टूट-बिखर जाये दोनों थोड़ी चोट खाले
फूट जाये घड़ा तो पानी फिर न संभले !
जिद्दी-जुझारू इंसान ज्यों टूटे त्यों संभले
घड़ा चाहे वह इंसान से यह सीख ले ले !
घण्टों घड़ा संभाले तब देता शीतल जल
इंसान भी धीरज रखने पे ही पाता फल !
खाली पडा़ घड़ा बज जाता महफिल में
खाली पड़ा इंसान बुझ जाता गाफिल में !
पाप का घड़ा तो अक्सर फूट ही जाता
पापी इंसान ये न्याय से क्यों छूट जाता?
बेपरवाह इंसान चिकना घड़ा बन जाता
चिकना घड़ा इसमें भी पीछे रह जाता !
इंसान भी घड़ा सा माटी का है खिलौना
बनना चाहे भगवान,दूजा सुराही सलोना !
एक मिट्टी घड़ा बने जल आग की भट्टी में
एक इंसान जल आग में मिलता मिट्टी में !
मिट्टी मिट्टी में मिले क्यों करना अभिमान
घड़ा नही पर ये सच गाँठ बांध ले इंसान !
सबकी अपनी प्रकृति अपना है स्वभाव
हमेशा अच्छाई का जग में रहता प्रभाव !
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मौलिक एंव स्वरचित: कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या-८. मई, २०२४.© जीवनसवारो