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11 Dec 2016 · 1 min read

बशर कैसे बचे बचा तो खुदा भी नहीं

बशर कैसे बचे बचा तो खुदा भी नहीं
ज़िंदगी कुछ इश्क़ के सिवा भी नहीं

दिल-ए-बीमार का हाल यही होना था
कोई दुआ भी नहीं कुछ दवा भी नहीं

फक़त वादा निभाने को क्यूँ चले आए
बिना क़सक़ के मिलने का मज़ा भी नहीं

जिसमें चल पड़ी नफे नुकसान की बातें
ज़्यादा रोज़ वो रिश्ता चला भी नहीं

दिवाना ना सही मेहरबाँ ही कर ले
ऐसी तो कोई हम में अदा भी नहीं

चेहरा बदल चुका है बारिश से धूप से
खोटा नहीं है सिक्का तो खरा भी नहीं

क्या कहें ‘सरु’ हमें क्या लगे ज़माना
कुछ बुरा नहीं तो यारो भला भी नहीं

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