बरसात
आयोजन समिति को मेरा सादर अभिवादन !
आदरणीय,
आपके मंच द्वारा आयोजित काव्य प्रतियोगता “ बरसात “ हेतु मेरी यह प्रविष्टि स्वीकार करे।
प्रमाणित करता हूं कि मेरी यह रचना स्वरचित, सर्वथा मौलिक और अप्रकाशित है।
रचना के मूल्यांकन के संदर्भ में यह अंकित करना न्यायोचित होगा, कि इस रचना में बरसात के सभी पहलुओं का सम्पर्णता में मूल्यांकन व विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है, कही यह कवि के लिए श्रृंगार का विषय है तो कही यह प्रेमीयुगल के लिए विरह व वेदना से जोड़ता है। एक धनिक के लिए विलास है, एक किसान के लिए हर्ष है तो एक गरीब के लिए अवसाद का विषय है। इस तरह आशा ही नही सम्पूर्ण विश्वास है कि जीवन के सम्पूर्ण पहलुओं को समेटे यह रचना आप सबका स्नेह और प्यार अवश्य पायेगी।
सादर – साभार : डॉ रमेश कुमार निर्मेष , काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी ( 9305961498 )
दिनांक – 28.05.2021
विषय – बरसात
जीवन का संगीत समन्वित
त्याग तपस्या से है मिलती,
मंद-मंद बूंदों की आहट
वसुंधरा का ताप है हरती।
जलद-धरा का प्रथम मिलन
मानो प्रकृति-पुरुष का संगम,
हो ऋतुकाल से निवृत्त प्रेयसी
करती प्रेमी का आलिंगन ।
चेतनाहीन प्रकृति लगती थी
थे ऊर्जाविहीन पड़े सब अंग,
ताप-तांडव बन्द हुआ अब
भीषण तपिश ने छोड़ा संग।
अनवरत नींद खंडित होती
था तीसरा पहर भी बीत रहा,
बरसात की मादक बूँदों से
मेरा रोम-रोम पुलकित हुआ।
लंबी विरह-वेदना से धरती
आकंठ हो चुकी थी पीड़ित,
चुम्बन बारिश की बूंदों ने
किया आज उसके हिय अंकित।
माटी की सोंधी सुगंध से
मन-मयूर मदहोश हुआ,
प्रथम बूंद की मादकता से
तन आनंद-विभोर हुआ।
मरुभूमि बन चुकी धरा थी
सूख सरोवर, सरिता, सागर,
सकुचाती वह आज ओढ़कर
हरित-हरीतिमा की चादर।
पकड़ वारि की धार अनवरत
वर्षा जब पर्वत पर पड़ती,
कर चंदन श्रृंगार प्रेयसी
प्रियतम को आकर्षित करती।
वही धरा पर छम-छम बूंदे
नवांकुरों को जन्म है देती,
संग साथ ले मलय प्रकृति
विरहनियों की पीड़ा हरती।
पोर-पोर जो प्रेमियों का
था अवसादों से तड़प रहा,
हर अंग-अंग उनका प्रत्यंग
सीत्कार मिलन से कर रहा।
बरसातों की सीधी बूंदे
मादक एक चोट पहुचाती,
तिरछी बूंदे बरसातों की
साथ भीगने को उकसाती।
सीवान भर चले पानी से
ध्वनियां मधुर बैल घंटी की,
खेतों को चल दिये किसान
चूड़ी खनकी मनिहारिन की।
प्रसारित चारों ओर दीखती
छटा आंचलिक गीतों की,
गहन-घमंड रह-रह कर गर्जत
क्या छटा निराली झूलों की ?
बना नाव कागज की बच्चे
सब सीवानों में दौड़ चले,
तरह-तरह के बना बहाने
सब स्कूलों की ओर चले।
धनिक बैठ बंगले में अपने
चाय-पकौड़े चौचक खाते,
बरसाती को ओढ़ भीगते
अनायास ही सब मखनाते।
छतरी लिए सैर वो करते
रास रचाते बागानों में,
अंतहीन खुशियां तलाशते
मदिरा के कुछ प्यालों में।
पर एक सत्य दंश भी देखा
वारिश सबको सुख नहि देता,
बरसात बंद होने की विनती
है गरीब कातर स्वर करता।
जर्जर छत से चूता पानी
पूरी रात समय वह जागे,
निर्धन फटे हुए वस्त्रों में
भीगने का सुख क्या जाने?
वर्षा की वैश्विक बूंदे जब
सम्पूर्ण धरा पर है पड़ती,
कही कहर और कही प्रलय
कही किसी को सुख है देती।
कवियों को श्रृंगार दीखता
है प्यार दीखता प्रेमियों को,
टूटी छत,खाली उदर जिनका
भाता बरसात कहाँ उनको।
बरसातों की माया अनूठी
कही प्रलय कही सुख की लीला,
निर्मेष हतप्रभ रहा हमेशा
देख प्रकृति का अनुपम खेला