“बरसात का वो दिन”
बारिश के बाद मोसम बेहद उमस भरा था घर मे हर तरफ सीलन आ चुकी थी जगह जगह सड़क पर भी पानी भर गया था।पार्क में घुसने से पहले ही मेरे पैर कीचड़ में सन चुके थे लेकिन घास पर जमी नमी व भरे पानी से साफ होते हुए मैं दाहिनी ओर बनी बैंच की ओर बढ़ने लगा।मैं नित्य इसी बैंच पर बैठता था पर आज पहले से वो बुजुर्ग महिला बैठी थी जो कभी कबार यहां होती थी।मैं बैंच के पास ही रेलिंग पर हाथ रखे कुछ देर खड़ा रहा।पास ही खेलते बालकों की गेंद मेरे पैर को छूती हुई निकल गया सहसा मैं ठिठक गया सामने से आता बच्चा सहमते हुए रक्षात्मक भाव से दूर जाती गेंद को लोटाने का इशारा कर रहा था।मैं कुछ दूर से उस गेंद को पकड़ते हुए पुनः उसको थमा दिया ।आकाश में बादल बायीं ओर बढ़ रहे थे पेड़ कल रात की तरह चुप थे सामने कुछ बूढ़े हाफ रहे थे तो एक ओर कुछ युवा बैडमिंटन खेलते हुए पसीना बहा रहे थे पार्क में लगे झूलों की करकश ध्वनि हर तरहफ गूंज रही थी।मैं अभी भी रेलिंग को पकड़े खड़ा था पर अब सामने बैंच पर बैठी बुजुर्ग महिला के चेहरे पर कुछ हंसी के भाव थे जानने से पता चला कि उसका पोता आज शाम को लौटेगा जिसके संग कुछ रोज पहले तक वो यहां आती थी।
प्रायः बुजुर्ग लोगों का हृदय स्पंदन बच्चों के क्रिया कलापो, हंसी ठटठा पर केन्द्रित होता है जीवन भी हास परिहास से संलगन होता है।मैं बादलों की ओर देखने लगा पंछियों की एक टोली आकाश के वक्ष को चीरते हुए बादलों में ओझल हो गयी ।बड़ बड़े पहाड़नुमा बादल छोटे बादलों को समेटते जा रहे थे।
मैंने बैंच की ओर पलटकर देखा तो वो बुजुर्ग महिला अब वहां नहीं थी।मैं रेलिंग की बाहं छोड़ बैंच की ओर बढ़ने लगा था बच्चे अभी भी उसी स्फूर्ति से खेलने में मग्न थे।शांत पेड़ों के बीच उमस अभी भी घर की सीलन की भांति ज्यों की त्यों थी।
मनोज शर्मा