बरसात- वर्षा ऋतु
उमड़ घुमड़ घन नभ में छाए, प्रेम सुधा बरसाने को,
पड़ने लगी फुहार मधुर, धरती की तपन बुझाने को !!
वन-उपवन सब फलित पल्लवित, वसुधा में हरियाली छाई,
आज खिल उठी कली पुनः जो, विगत दिनों में थी कुम्हलाई!
पुनः प्रस्फुटित निर्झर झरते, धरा अलंकृत हुई वधू सी,
पुष्प सुसज्जित हरी चुनरिया, ओढ़ प्रकृति ने ली अंगड़ाई !!
अनुपम मनभावनि ऋतु आयी, सब ही को हर्षाने को,
पड़ने लगी फुहार मधुर, धरती की तपन बुझाने को !!
शुक, पिक, दादुर और पपीहा, सभी बोलते अपने स्वर में,
देखि प्रकृति की छटा अलौकिक, खुशियाँ छाई है घर-घर में!
मधुर- मधुर बूंदों की धुन में, मोर नाचते अपने ही धुन,
चंचल पवन चले द्रुतगामी, घन घमंड गरजे अम्बर में !!
दामिनि दमक उठी है चहुँ दिशि, विरही को ललचाने को,
पड़ने लगी फुहार मधुर, धरती की तपन बुझाने को !!
है अभीष्ट वरदान ईश का, नव जीवन है मिला सृजन को,
सुन्दर वर्षा ऋतु सुहावनी, हर लेती है सबके मन को !
खग, मृग सरिता औ तड़ाग भी, रहते सभी प्रतीक्षारत हैं,
नव उमंग ले चाहें बच्चे, जैसे छू लें नील गगन को !!
मन करता है मेरा भी, कागज की नाव बनाने को,
पड़ने लगी फुहार मधुर, धरती की तपन बुझाने को !!
– नवीन जोशी “नवल”
बुराड़ी, दिल्ली
(स्वरचित एवं मौलिक)