बरखा
बरखा ने अपने आगमन की
क्या महफ़िल सजाई है
सुनो , झूमते पत्तों ने
कोई धुन गुनगुनाई है !
नीम और गुलमोहर ने
करतल की थाप लगाई है
हिलोरें लेती शाख पर
कोयल ने सरगम गाई है !
उमड़ घुमड़ मेघ
मस्त मौला से चले आ रहे हैं
देखो बरखा के स्वागत में
पखावज बजा रहे हैं !
कि मेघों की भीड़ है
या बाराती चले आ रहे हैं
या दुल्हन को बिठाए डोली में
बन कहार ‘बरखा’ को ला रहे हैं !
समां बंध तो गया है
बरखा के आने की प्रतीक्षा है
बरस जाएँ बरखा के संग
अधीर नयनों की यही इच्छा है !
मंद समीर भी अब
उन्मादी हो रहा है
मिलवाने को बूंदों को धरा से
कैसा विकल हो रहा है !
बरखा की पहली बूँद चखने को
मन चातक हो रहा है
ज्यों बिरहन का मन
पिय मिलन को रो रहा है !
और देखो
जिस बरखा से मिलन को
धरा तरस गयी
वही बरखा कुछ यूँ बरस गयी
नयनों में लिए नीर
विकल नायिका भी रोते रोते
ज्यों मिलन कर पिया से
लजाकर हंस गयी !
मौन आसमान भी
आज मुखर हो रहा है
ख़ुशी से देखो
पत्ता पत्ता रो रहा है !
अनमोल हैं पल
बरखा और धरा के मिलन के
कि जीवन हर पल को
मन में संजो रहा है !
——-डॉ सीमा ( कॉपीराइट )