बरक्कत
बरक्कत
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तुम डिब्बों में
तलाशती रहीं
घर की बचत
कहती रहीं
यही है बरक्कत
मैं सब्जी की दुकान में
छांटता रहा
बासी के ढेर में पड़ी
ताजी सब्जी…
मैं मानता रहा इसे
थोड़ा समय जाया करते
खरीद की होशियारी
तुम इसे भी कहती रहीं
जरिया बरक्कत का
हमारी खुशी राशन की
दुकान में सुबह पहुंच कर
घटतौली ही सही
समय पर राशन मिलने की रही
तुम्हारी खुशी
घर का सारा काम
खुद ही समेट कर
नियत समय शाम को
दरवाजे पर
मेरे इंतिजार वाली
आंखों को
हमेशा चिपकाए रहने में रही
पर आज ढूढने से नहीं मिलती
वह खुशी
वह बरक्कत
और वह इंतिजार समेटे
दो जोड़े आंखों की कशिश …
क्यों कि दोनों ही
नौकरी पेशा हैं
और दोनों ने कर दिया है
बरक्कत का फलसफा
जमींदोज…
– अवधेश सिंह