बयान ए क़लम
क्या लिखूं कैसे लिखूं
मैं एक विश्वास लिखना चाहती हूँ
काल के कपाल पर मैं
इतिहास लिखना चाहती हूँ
लिखना ही मेरा शौक़ है
लिखना ही मेरी जिंदगी
बिन लिखे न चैन मुझको
लिखना ही मेरी बंदगी
जनमानस की वेदनाओं के अब्र
छाए रहते है मेरे अंतर्मन में
कागज़ पर उन्ही वेदनाओं का
मैं हर अहसास लिखना चाहती हूँ
काल के कपाल पर मैं…
हो दिल का मौसम खुशनुमा
तो मुस्कुरा जाती हूँ मैं
प्रकृति का थाम आँचल
साथ आ जाती हूँ मैं
यूँ तो मैंने ही रचे थे
कई वेद गीता और क़ुर’आन
आज भी कायम है जिसका
वही रुतबा और वही मुकाम
लोगों के दिलों पर मैं फिर वही
ख़ुलूस ओ इखलास लिखना चाहती हूँ
काल के कपाल पर मैं ….
मुझ पर ही निर्भर है आज
भविष्य मेरे देश का
मुझ पर चढ़ नहीं सकता है
रंग पश्चिमी परिवेश का
आज भटक रहा है “नज़र”
तू क्यूँ इस परिवेश के अँधेरे में
इस अँधेरे पर अपनी संस्कृति का,
प्रकाश लिखना चाहती हूँ
काल के कपाल पर मैं ….
-नज़ीर नज़र