बन्जारा
अपनी ही धुन में मगन वह चला जा रहा तले नीले गगन ।
शायद किसी दिवास्वप्न में खोया या किसी कल्पना लोक में लीन ।
चारों ओर के कोलाहल से बेख़बर अपने ही गीत में तल्लीन ।
उसकी सरल मोहिनी मुस्कान आंदोलित करती मन को करा रही रसपान ।
उसे ना भय इन पथ के शूलों का ।
और ना विषाद उसके मन में भूलों का ।
बढ़ता ही जा रहा अपने लक्ष्य की और वह सतत् ।
हंँसते झेलता और और खेलता संकटों से अनवरत् ।