बदलाव
मै पहले से अब कुछ बदलना चाहती हूं
डरती थी अकेली सड़क पर अब मैं निडर दौड़ना चाहती हूं
नारी की जात आंखें झुका कर सबके समक्ष पेश आती थी
अब सर उठा कर जग में दबंग जीना चाहती हूं
कोमलांगी अबला स्त्री का खिताब पाकर
चौकन्नी चार दिवारी में कैद रहती थी
गमों को चुपचाप सहन कर आंसुओ को अंदर पी जाती थी
अब मैं पुरूष की भांति स्वतंत्र निडर मजबूत आत्मनिर्भर होना चाहती हूं
गमों को अलविदा कर सारी खुशियां बटोरना चाहती हूं
मैं सुलक्षण बहु बनी घर तक सीमित रहती थी
अब मैं आधुनिक सास बन बदलना चाहती हूं।
– सीमा गुप्ता, अलवर