“बदलते रिश्ते”
“बदलते रिश्ते”
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मैं किस रिश्तों की, बात करूं;
हर रिश्ते ही, अब तो सस्ते है।
जहां कोई भी, नुकसान दिखे;
नफा हेतु ही, बदलते रिश्ते हैं।
रिश्तों में अब, कोई दम कहां;
ये तो बिखरें पड़े हैं,जहां-तहां।
सब ही,निजस्वार्थ से चलते हैं;
मौसम की तरह, अब सदा ही;
वक्त-बेवक्त , बदलते रिश्ते हैं।
एक रिश्ता होता,जब माॅं मिले;
तभी बेटा या बेटी, रहते खास;
फिर तो तभी, बदलते रिश्ते हैं;
जब रिश्तों में , आ जाए सास।
एक रिश्ता दिखे,निजभाई का;
टिके,जबतक मन भौजाई का।
हरेक भाई को,बहन याद आए;
बहना , राखी के रिश्ते निभाए।
पुत्र व माता-पिता , के रिश्ते में;
दिखती सदा,रिश्तों की गहराई;
सुपुत्र सादर करते, उनकी सेवा;
जब-तक न आए,घर में लुगाई।
अब तो,प्रायः बेटी के रिश्ते को;
कन्या-दान से भी, मिले बिदाई।
खून के ही रिश्ते सारे,होते प्यारे;
पर रिश्ते अब,बन गए हैं बेचारे।
अब रिश्तों में, न कोई प्रेम दिखे;
रिश्ते सब, सिर्फ हाथों से लिखे।
किन रिश्तों को, मैं भला बताऊं;
कैसे कहूं, किसमे मेह मिलते हैं।
मानो , बचपन में स्नेह मिलते हैं;
फिर आगे, सारे ‘बदलते रिश्ते’हैं।
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#स्वरचित_सह_मौलिक;
……. ✍️पंकज ‘कर्ण’
…….कटिहार(बिहार)।