||बदलते गांव और हम ||
“सहसा कुछ बीते वर्षों में
देखो कैसे बदले है गांव
होते थे खेत खलिहान कभी जहाँ
आज कारखाने लगे पड़े है वहां ,
प्रदुषण को नित्य बढ़ाते है
तरह-तरह के रोग नए
हर दिन ये फैलाते है ,
गावों का यौवन मुझको
मिटता हुआ अब दिखता है
ना होता था नाम जहाँ बीमारी का
हर कोई रोगी अब दीखता है ,
याद है मुझको वो दिन भी
जब गन्ने की खेती होती थी
काटे गन्ने पेरे जाते थे कोल्हू में
गन्ना और उसका गुड खाया करते थे हम भी ,
वो सरसों की सोंधी महक
जो दूर खेतों में फैली होती थी
वो संक्रांति के मौको पे
फिर अपनी पतंगबाजी होती थी ,
खाके दही,चुड़ा हम सब
पिके मीठा रस गन्ने का
खेतो को निकल जाया करते थे
वो अंकुरित चने के पौधे का खट्टा स्वाद
हर्षित अब भी करता है
वो गाय का मीठा दूध कभी जो
सेहतमंद हमें करता था
गाय के गोबर से बनी उपलिया
जिसपे सोंधी बाटी पकती थी
नहीं दिखता अब ये सब मुझको
गांव नहीं अब भी बदला है
कैसे कहे की हम ही खुद बदल गए है ||